विक्रांत श्रीवास्तवा "ग़ैर"
Monday, October 25, 2010
बहुत धोके खाकर
बहुत धोके खाकर इंसान बदल जाता है
या तो बिगड़ जाता है फिर संभल जाता है
सँभालने वाला फूँक कर कदम रखता है
इसलिए हर शख्स को ऐ "गैर" गैर ही समझता है
ज़िन्दगी हर छण धोके से भरी है
कदम कदम में नहीं कदम में भी दूरी है
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